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- हम-तुम
Posted by : Sushil Kumar
Friday, October 5, 2012
(अपने भूले - बिसरे साथियों को याद करते हुए )
हमारी आँखों में तुम थे तुम्हारी आँखों में हम
हमसब की आँखों में ढेर-सारे सपने थे
सपनों के सफेद पंख थे
मन का खुला बितान था
और कुलांचे भर उड़ने की उसमें चुलबुली इच्छाएँ
सोचना सब कुछ इतना आसान था कि
कुछ भी करने को उद्धत हो जाते थे हम एक-दूसरे की खातिर
जेबें खाली थीं अपनी पर हृदय संतोष से भरा था
फटेहाली कम न थी फिर भी मस्तमौला थे बावरे थे
और कई उलझनों के बावजूद लगभग निश्चिंत-से रहते थे
आज न तुम हो मेरे सामने , न हमारे वे सपने
लानतों से भरे सामान हैं, जेबें भरी-पूरी हैं अपनी
पर न रंग है कोई न जज्बा
न वह उमंग न उड़ान
अपने-अपने हिस्से का आकाश ढोते हुए
अपनी-अपनी दुनिया में कैद
एक ही मुहल्ले एक ही गली में
हम एक-दूसरे की पीठ बन गए हैं
सोचता हूँ आदमी बनने के गणित में
अपने जीवन का भूगोल कितना बदल लिया हमने |
हमारी आँखों में तुम थे तुम्हारी आँखों में हम
हमसब की आँखों में ढेर-सारे सपने थे
सपनों के सफेद पंख थे
मन का खुला बितान था
और कुलांचे भर उड़ने की उसमें चुलबुली इच्छाएँ
सोचना सब कुछ इतना आसान था कि
कुछ भी करने को उद्धत हो जाते थे हम एक-दूसरे की खातिर
जेबें खाली थीं अपनी पर हृदय संतोष से भरा था
फटेहाली कम न थी फिर भी मस्तमौला थे बावरे थे
और कई उलझनों के बावजूद लगभग निश्चिंत-से रहते थे
आज न तुम हो मेरे सामने , न हमारे वे सपने
लानतों से भरे सामान हैं, जेबें भरी-पूरी हैं अपनी
पर न रंग है कोई न जज्बा
न वह उमंग न उड़ान
अपने-अपने हिस्से का आकाश ढोते हुए
अपनी-अपनी दुनिया में कैद
एक ही मुहल्ले एक ही गली में
हम एक-दूसरे की पीठ बन गए हैं
सोचता हूँ आदमी बनने के गणित में
अपने जीवन का भूगोल कितना बदल लिया हमने |
अपने-अपने हिस्से का आकाश ढोते हुए
ReplyDeleteअपनी-अपनी दुनिया में कैद
एक ही मुहल्ले एक ही गली में
हम एक-दूसरे की पीठ बन गए हैं
सोचता हूँ आदमी बनने के गणित में
अपने जीवन का भूगोल कितना बदल लिया हमने |
सच कहा
भाई सुशील जी, आपकी कोई कविता बहुत दिनों बाद मैं पढ़ पाया। यह कविता अपनी सहजता में असाधारण है। बधाई !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना!
ReplyDeleteईश्वर इन आँखों को सलामत रखे!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (07-10-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
बहुत उम्दा रचना!!
ReplyDeleteसोचता हूँ आदमी बनने के गणित में
ReplyDeleteअपने जीवन का भूगोल कितना बदल लिया हमने |
बेहतरीन प्रस्तुति.
बहुत ही सुंदर रचना |
ReplyDeleteनई पोस्ट:- वो औरत
सपनों के सफेद पंख थे
ReplyDeleteमन का खुला बितान था
और कुलांचे भर उड़ने की उसमें चुलबुली इच्छाएँ
सोचना सब कुछ इतना आसान था कि
कुछ भी करने को उद्धत हो जाते थे हम एक-दूसरे की खातिर....उन पंखों के साथ मन का खुला बितान आज भी चाह में है
एक अहसास जगाने में सक्षम है आपकी कविता। सचमुच में शब्द सक्रिय है जो अम आदमी की जेबें भी देख लेते हैं और सपने भी देख लेते हैं। बधाई। किशोर कुमार जैन गुवाहाटी असम
ReplyDeleteबेहतरीन भावाभिव्यक्ति..
ReplyDelete:-)
धन्यवाद आप सबों का |
ReplyDeletedhanyavaad rashmi ji
ReplyDeleteसोचता हूँ आदमी बनने के गणित में
ReplyDeleteअपने जीवन का भूगोल कितना बदल लिया हमने |
सच कहा |
बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता !
सादर
इला
aadarneeya susheel sir
ReplyDeletenamaskar
aapkee rachanaaein hamesha padhatee hun.behad sahaj par bahut bhaavpurna hote hain.
shukriya