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Posted by : Sushil Kumar
Friday, August 19, 2011
इस तरह मत देखूँ तुम्हें कि
कि अनदिखा ही रह जाय तुम्हारा रूप-लावण्य
अनछुई ही रह जाय तुम्हारी आंतरिक बनक
दबे ही रह जाएँ मन में हिलोरें लेती इच्छाएँ
और अनसुने ही रह जाएँ
वहाँ जनमते प्रेम–संगीत
रूप-रस और गंध तो मात्र
देखने-सुनने और छुवन के ढंग पर निर्भर है
और आँखों का दोष बस इतना है
कि वह देखते हुए भी
देख नहीं पाती
अकस्मात तुम्हें पूरा-पूरा
न मन ही एकबारगी पढ़ पाता
तुम्हारे रूप के आवरण-आकर्षण में गुप्त प्यार-सनी
गहरी धँसी इच्छाओं की जटिल ज्यामितियाँ
आँख से अधिक वह नजर चाहिए
तुम्हारे दीदार को मुझे कि,
जब देखूँ तुम्हें तो कुछ इस तरह देखूँ
कि पूरा देखूँ तुम्हें,
महसूस करूँ तुम्हें आत्मा के सम्पूर्ण अतिरेक से
सूँघूँ वैसे कि रजनीगंधा बिखर रही हो मेरे मन के आँगन में -
ठीक जैसे
किसान देखता है स्वेद-सिंचित धरती पर
लहलहाते धान की बालियों के बीच
अपनी पत्नी का खिला मुखड़ा
जैसे मोर देखता है गर्व से
धमाचौकड़ी करता मेघ भरा बादल
जैसे मेहनती विद्यार्थी परीक्षा का
अपना सफल रिपोर्ट–कार्ड
देखकर हुलसता है
सुनूँ वैसे कि
साँप मदारी की बीन सुन डोलता है
और सूँघूँ वैसे,
जैसे महुआ की गंध से पहाड़िया
और जंगलजीव जाग उठते हैं
और उनका मन
बौराने लगता है
प्रेम-हर्ष के तेज बयार में |
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज शनिवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
ReplyDeleteयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो
चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
वाह बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteन मन ही एकबारगी पढ़ पाता
ReplyDeleteतुम्हारे रूप के आवरण-आकर्षण में गुप्त
प्यार-सनी
गहरी धँसी इच्छाओं की जटिल ज्यामितियाँ
आँख से अधिक वह नजर चाहिए मुझे
तुम्हारे दीदार को ..कि ,
जब देखूँ तुम्हें तो कुछ इस तरह देखूँ
कि पूरा देखूँ , जैसे -.............मनोहर प्रतीकों से सजी प्रस्तुति ,सात्विक भाव आलोडन करती ,रूप का शव परीक्षण करती ...
.जय अन्ना !जय श्री अन्ना !आभार बेहतरीन पोस्ट के लिए आपकी ब्लोगियाई आवाजाही के लिए
बृहस्पतिवार, १८ अगस्त २०११
उनके एहंकार के गुब्बारे जनता के आकाश में ऊंचाई पकड़ते ही फट गए ...
http://veerubhai1947.blogspot.com/
Friday, August 19, 2011
संसद में चेहरा बनके आओ माइक बनके नहीं .
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वह बहुत सुंदर अभिब्यक्ति /सुंदर शब्दों का चयन लिए हुए /बधाई आपको
ReplyDeleteplease visit my blog.
http://prernaargal.blogspot.com/.thanks.
भाई तुमने अन्त में कविता को जो एक मोड़ दिया है, वहां आकर कविता अपनी सार्थकता सिद्ध कर देती है… बहुत अच्छी लगी।
ReplyDeleteअनछुआ ही रह जाय तुम्हारी आंतरिक बनक
ReplyDeleteदबे ही रह जाएँ मन में हिलोरें लेते सपने
और अनसुने ही रह जाएँ
वहाँ जनमते प्रेम–गीत
bahut samvensil aur sundar.....
बहुत सुन्दर, गहन, सार्थक चिंतन...
ReplyDeleteसादर...
khubsurat prem ki paati.....
ReplyDeletebahut khub !
ReplyDeleteई-मेल पर प्राप्त सुरेश यादव जी (sureshyadav55@gmail.com) की टिप्पणी -
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सुशील कुमार जी ,इस भावपूर्ण प्रेम कविता के लिए हार्दिक बधाई
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