Posted by : Sushil Kumar Saturday, December 8, 2012

[चित्र-साभार गूगल ]

आओ, दोज़ख़ की आग में दहकता
अपनी ऊब और आत्महीनता का चेहरा
समय के किसी अंधे कोने में गाड़ दें
और वक्त की खुली खिड़की से
एक लंबी छलाँग लगाएँ -

यह समय 
मुर्दा इतिहास की ढेर में
सुख तलाशने का नहीं,
न खुशफ़हम इरादों के बसंत बुनने का है 

दिमाग की शातिर नसों से बचकर
अपने होने और न होने के बीच
थोड़ी देर अपनी ही गुफा में कहीं 
गुप्त हो जाएँ निःशब्द, विचार-शून्य  -
कि समय भी न फटक पाए वहाँ 

वहाँ हमारे कानों में न दुनिया फुसफुसायेगी
न सन्नाटे ही शोर मचायेंगे

सदियों से आलिंगन की प्रतीक्षा में खड़ा
कोई दस्तक़ दे रहा वहाँ   
गौर से सुनो,
- तुम्हारी ही आवाज है |

(2) 

भाषा की साजिश के खिलाफ
हृदय के एकान्त-निकेतन में
आओ अपना पहला कदम रखें और
लोथ-लुंठित दुनिया के रचाव से बेहद दूर -
स्निग्ध अंतःकरण को स्पर्श करते हुए 
स्वयं की ओर एक यात्रा पर निकलें -

उछाह और उमंग से स्फुरित
इस अन्तर्यात्रा में
हम फिर जी उठें
उतने ही तरंगायित और भावप्रवण होकर
जितने माँ की कोख ने जने थे |



{ 8 comments... कृपया उन्हें पढें या टिप्पणी देंcomment }

  1. बहुत अच्छा कविता है और आपका ब्लाग भी उतना ही एडवांस है|

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  2. दोनों ही कविताएं मनुष्य के 'स्वयं' की ओर की जाने वाली यात्रा की ज़रूरत को रेखांकित करती सी जान पड़ती है। आज मनुष्य एक-दूसरे से संवादहीनता की स्थिति में है और अपने आप से तो वह कभी संवाद करता दीखता ही नहीं है, अपने अंदर झांकने से उसे डर लगता है और अपने अंदर की यात्रा से वह बचता है। बेहद त्रासद स्थिति हो गई है आज मनुष्य की। अच्छी कविताओं के लिए बधाई !

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  3. दोनों कवितायेँ बहुत जबरदस्त हैं स्वयं को खोजने का सार्थक प्रयास कवितायों को नयी उचाई प्रदान करता है.

    बहुत बहुत बधाई.

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  4. दोनों कवियायें बहुत अच्छी लगी.

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  5. DONO KAVITAAYEN HRIDAY SPARSHEE HAIN .

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  6. बहुत अच्छा कविता है

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  7. रश्मि प्रभा... has left a new comment on your post "हृदय की ओर":

    http://urvija.parikalpnaa.com/2012/12/blog-post_9085.html

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