- Back to Home »
- आदिवासी कविता , कविता , प्रेम की पाती , सुशील कुमार »
- आना प्रिय
Posted by : Sushil Kumar
Friday, August 5, 2011
आना प्रिय
एक बार फिर
मेरी स्मृति–दीर्घा में
खुले हाथ झुके माथ
अपलक नेत्र प्यासे होंठ
प्रतीक्षा की अचल मुद्रा में
कुछ उसी तरह जैसे
सागर से मिलन की इच्छा से ऊब-डूब
रेत भरी कोई पहाड़ी नदी
चुपचाप निस्पंद
भीतर ही भीतर अविरल बहती हो,
कहां हो तुम अपने पिया संग
मालूम नहीं पर जहां भी हो
आना प्रिय चुपके-चुपके
एक बार फिर
मेरे सपने में
-2-
संजोना चाहता था प्राण–पण से
तुम्हारे प्यार का एक-एक कतरा
अपने हृदय-कमल में
बचाना चाहता था
समय की आँधी-बतास से उसे
साँस के अंतिम क्षण तक
भागना नहीं चाहता था ऊबकर मैं
जीवन के टंठों से
मुँह नहीं मोड़ना चाहता था
तुमसे अटूट प्रेम करता हुआ भी
दुनियाभर की उन अपेक्षाओं से
जो लगा रखी थी लोगों ने मुझसे कभी
पड़ने नहीं देना चाहता था कभी
किसी अपशुकुन की काली छाया
तुम्हारे हृदय–वीणा के तार-तरंगों पर
जिसमें बजती रहती थी नित्य
एकांत एकालाप –
तुम्हारे प्यार का सुरम्य संगीत
भरना चाहता हूँ आज फिर
अपने पौरुष का राग उसमें
गाना चाहता हूँ आज फिर उसकी लय पर
पूरी तन्मयता से
यादों में तुम्हारे ताजा होने का गीत
काल के सब प्रहारों को सहते हुए
जो कील की तरह गड़ी हुई है इस वक्त भी
मेरे मन-पांखी के डैने पर
तुमसे प्रेम करते हुए
मैं सरकना चाहता हूँ आज फिर
और ज्यादा मनुष्यता की ओर
तुम्हारे तन के आकाश में
उड़ने के बजाय
तुमको अंग लगाते हुए
तुम्हारे मन के समुद्र में
गोता लगाना चाहता हूँ
उसका सीना फाड़
उस मोती-मूँगा को पाना चाहता हूँ
जिसमें तुम्हारे स्त्री होने का अर्थ गुप्त था
क्योंकि तुम्हारे स्त्री होने के अर्थ में ही
मेरी कविता होने का भाव छिपा है
सचमुच वही मेरी कविता का प्रगति-विन्दु है !
जिसकी धुरी पर परिक्रमा करता हुआ
प्रेम-विभोर हो
सृष्टि और माया को समझना चाहता हूँ
और जानना चाहता हूँ तुम्हें पोर – पोर
तुम्हारे अथाह में डूबकर
सत्यान्वेषी योगी की तरह
तुम्हारे प्रेम-जल में भींगकर
पर इस यात्रा में तुम्हारा साथ छूट जाना
कविता में पूरी होती शब्द-यात्रा का मानो
स्थगित हो जाना है या फिर
चेतना के राजहंस का किसी
बंजर टीले पर दम तोड़ देना है |
एक बार फिर
मेरी स्मृति–दीर्घा में
खुले हाथ झुके माथ
अपलक नेत्र प्यासे होंठ
प्रतीक्षा की अचल मुद्रा में
कुछ उसी तरह जैसे
सागर से मिलन की इच्छा से ऊब-डूब
रेत भरी कोई पहाड़ी नदी
चुपचाप निस्पंद
भीतर ही भीतर अविरल बहती हो,
कहां हो तुम अपने पिया संग
मालूम नहीं पर जहां भी हो
आना प्रिय चुपके-चुपके
एक बार फिर
मेरे सपने में
-2-
संजोना चाहता था प्राण–पण से
तुम्हारे प्यार का एक-एक कतरा
अपने हृदय-कमल में
बचाना चाहता था
समय की आँधी-बतास से उसे
साँस के अंतिम क्षण तक
भागना नहीं चाहता था ऊबकर मैं
जीवन के टंठों से
मुँह नहीं मोड़ना चाहता था
तुमसे अटूट प्रेम करता हुआ भी
दुनियाभर की उन अपेक्षाओं से
जो लगा रखी थी लोगों ने मुझसे कभी
पड़ने नहीं देना चाहता था कभी
किसी अपशुकुन की काली छाया
तुम्हारे हृदय–वीणा के तार-तरंगों पर
जिसमें बजती रहती थी नित्य
एकांत एकालाप –
तुम्हारे प्यार का सुरम्य संगीत
भरना चाहता हूँ आज फिर
अपने पौरुष का राग उसमें
गाना चाहता हूँ आज फिर उसकी लय पर
पूरी तन्मयता से
यादों में तुम्हारे ताजा होने का गीत
काल के सब प्रहारों को सहते हुए
जो कील की तरह गड़ी हुई है इस वक्त भी
मेरे मन-पांखी के डैने पर
तुमसे प्रेम करते हुए
मैं सरकना चाहता हूँ आज फिर
और ज्यादा मनुष्यता की ओर
तुम्हारे तन के आकाश में
उड़ने के बजाय
तुमको अंग लगाते हुए
तुम्हारे मन के समुद्र में
गोता लगाना चाहता हूँ
उसका सीना फाड़
उस मोती-मूँगा को पाना चाहता हूँ
जिसमें तुम्हारे स्त्री होने का अर्थ गुप्त था
क्योंकि तुम्हारे स्त्री होने के अर्थ में ही
मेरी कविता होने का भाव छिपा है
सचमुच वही मेरी कविता का प्रगति-विन्दु है !
जिसकी धुरी पर परिक्रमा करता हुआ
प्रेम-विभोर हो
सृष्टि और माया को समझना चाहता हूँ
और जानना चाहता हूँ तुम्हें पोर – पोर
तुम्हारे अथाह में डूबकर
सत्यान्वेषी योगी की तरह
तुम्हारे प्रेम-जल में भींगकर
पर इस यात्रा में तुम्हारा साथ छूट जाना
कविता में पूरी होती शब्द-यात्रा का मानो
स्थगित हो जाना है या फिर
चेतना के राजहंस का किसी
बंजर टीले पर दम तोड़ देना है |
बहुत उम्दा रचनी लिखी है आपने!
ReplyDeleteभाई सुशील जी, आपकी ये प्रेम कविताएं कविता की शुष्क होती संवेदनभूमि पर सावन की मनभावन बौछार-सी लगीं। मेरा तो अपना मानना है कि प्रेम में जीता कवि कविता को कहीं अधिक करीब से जानता है और अच्छी कविता लिखता है। प्रेम हमें नि:संदेह बेहतर मनुष्य बनाता है। आप जब ये पंक्तियां लिखते हैं कि - तुमसे प्रेम करते हुए
ReplyDeleteमैं सरकना चाहता हूँ आज फिर
और ज्यादा मनुष्यता की ओर…
तो बहुत सही लिखते हैं…
बधाई !
बहुत खूब प्रस्तुति .. कमाल की अभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteभागना नहीं चाहता था ऊबकर मैं
ReplyDeleteजीवन के टंठों से
मुँह नहीं मोड़ना चाहता था
तुमसे अटूट प्रेम करता हुआ भी
दुनियाभर की उन अपेक्षाओं से
जो लगा रखी थी लोगों ने मुझसे कभी
... mann ke jhanjhawaat
sundar prstuti....
ReplyDeleteWAH ! WAH !! MAINE BHEE AAPKEE PREM KAVITAAON KE SAAGAR
ReplyDeleteMEIN GOTAA LAGAA LIYAA HAI . BAHUT ACHCHHA LAGAA HAI .
TAROTAZA HO GYAA HOON .
बहुत सुन्दर कविता है जो प्रेम की भावभूमि से आत्मिक रंग संसार तक अविरल प्रवाहित होती महसूस होती है ।
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें
मनोज अबोध
कहां हो तुम अपने पिया संग
ReplyDeleteमालूम नहीं पर जहां भी हो
आना प्रिय चुपके-चुपके
एक बार फिर
मेरे सपने में
-आह!! हा!!...ओह!! गज़ब...कुछ मेरे भाव जा बसे इसमें...
तुम न आये तो बरसते आसमां से कह दिया
ReplyDeleteरुक सको तो कल बरसना, आज मन है अनमना....
धन्यवाद समीर लाल जी।
ReplyDeletePrem ki moun abhivyakti, jaise pyaasi dharti pe baraste baadal ... Behad jalawaab Shushil ji
ReplyDeleteअत्यंत संवेदनशील रचनाएँ. बहुत बधाई.
ReplyDeleteआना प्रिय चुपके-चुपके
ReplyDeleteएक बार फिर
मेरे सपने में
मुझे भी लगे स्म्रति दीर्घा में
मैं शामिल हूँ
अपने में
और जानना चाहता हूँ तुम्हें पौर पौर !
ReplyDeleteसुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है!बधाई!
ReplyDeleteसुन्दर भावभूमि। बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना! बेहतरीन प्रस्तुती!
ReplyDeletesushil ji aapki kavitayen padhi...bahut bahut pasand aayin
ReplyDeleteपर इस यात्रा में तुम्हारा साथ छूट जाना
कविता में पूरी होती शब्द-यात्रा का मानो
स्थगित हो जाना है या फिर
चेतना के राजहंस का किसी
बंजर टीले पर दम तोड़ देना है |
waah bahut bahut khoob....
भागना नहीं चाहता था ऊबकर मैं
ReplyDeleteजीवन के टंठों से
मुँह नहीं मोड़ना चाहता था
तुमसे अटूट प्रेम करता हुआ भी
दुनियाभर की उन अपेक्षाओं से
जो लगा रखी थी लोगों ने मुझसे कभी
gazab sir bahut achchha man prasann ho gya>>>>>