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- महुआ
Posted by : Sushil Kumar
Friday, October 14, 2011
मेरी बारी में
महुआ का यह पेड़
दिन-दिन सूखता जा रहा है
अब फल नहीं आते उस तरह
न गमक ही उसकी
फैल पाती
भीतर वाले घर – ओसारे और पास वाले तलैया तक
कंक-सा होता जा रहा है यह पेड़
तुम्हारे जाने के बाद
कहती है माँ –
जब से तलैया का पानी सूखा है
सोनचिरैया भी
लापता हो गई इस पेड़ से
और पहाड़ के भूतों ने
यहाँ डेरा डाल दिया है
कौन देस चली गई
सोनचिरैया संग तुम
ताल का जल और महुआ की खुशबू उतारकर
कि लौटने का नाम नहीं लेती ?
शायद पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ |एक बहुत सुंदर सारगर्भित रचना पढ़ने को मिली आभार .......
ReplyDeletebahut sundar rachana
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
ReplyDeleteयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
विछोह का दुःख झेलना आसान नहीं. सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteसदर...
SUNDAR ! ATI SUNDAR !!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!!
ReplyDeleteएक प्रभावकारी और मन को छूने वाली कविता लगी आपकी…बधाई !
ReplyDeleteसुभाष नीरव