Posted by : Sushil Kumar Friday, July 27, 2012




इस पन आकर मुझे
इलहाम हुआ कि
हृदय भी एक हाथ था मेरा
अरसे से मेरी पीठ से बँधा
फ़िजूल बंधनों से नधा
हृदय हां, अब भी
एक हाथ है मेरा
मुझ आँख के अंधे की
      लाठी
इस अंधेर दुनिया के भटकन में
और देखो, वह
बुला रहा है मुझे
और तुम्हें भी
उसकी आवाज़ गौ़र से सुनो
इस तन-तंबूरे में
कह रहा है कोई
सच्ची बात
हित की बात
ओह, सुनी तुमने
पहले कभी
इतनी भली बात !
उसकी टूटन
और नहीं सहूंगा
अक्षर-अक्षर
हृदय के कहन का
लोक लूंगा !
इस राह चलते
मन की डींगे
खूब सुनता आया हूं, अब
अपने हृदय को भी
हाँक लूंगा
इस यात्रा में
हां,..हृदय को भी
अपने साथ लूंगा।

{ 6 comments... कृपया उन्हें पढें या टिप्पणी देंcomment }

  1. बहुत सुन्दर कविता...

    ReplyDelete
  2. स्वागत है |

    ReplyDelete
  3. ACHCHHEE KAVITA KE LIYE AAPKO BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA . MERA EK
    SHER SUNIYE -

    SABKEE BAATEN SUNNE WAALE
    APNE DIL KEE BAAT KABHEE SUN
    TEREE KHAIR MNAANE WAALAA
    TERA APNA HAI DIL PYAARE

    ReplyDelete
  4. धन्यवाद आदरणीय प्राण साहब |

    ReplyDelete

संपर्क फॉर्म ( ईमेल )

नाम*

ईमेल आई डी*

संदेश*

समग्र - साहित्य

ताजा टिप्पणियाँ

विधाएँ

संचिका

सुशील कुमार . Powered by Blogger.

- Copyright © स्पर्श | Expressions -- सुशील कुमार,हंस निवास, कालीमंडा, दुमका, - झारखंड, भारत -814101 और ईमेल - sk.dumka@gmail.com -