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Posted by : Sushil Kumar
Friday, August 3, 2012
साँस की प्राण-वायु अपनी रग-रग में भरकर
स्वयं का संधान कर स्वयं में अंतर्लीन होकर
स्वयं का संधान कर स्वयं में अंतर्लीन होकर
यह प्रयाण जरूरी था मेरे लिये –
न कोई रंग न कोई हब-गब
जीवन सादा पर सक्रिय है यहाँ
दैनिक क्रियाएँ सरल हैं
स्वर जैसे थम गया हो
हृदय-वीणा के तार जैसे यकायक
तनावमुक्त हो झनझनाकर स्थिर हुए हों
तनावमुक्त हो झनझनाकर स्थिर हुए हों
पर सकल आलाप अब शांत है
नीरवता में इस दिनांत की साँझ-वेला में
कोई थिर स्वर उतर रहा है काया के नि:शब्द प्रेम-कुटीर में
अंतर्तम विकसित हो रहा है चित्त स्पंदित हो रहा है
धवल उज्ज्वल आलोक-सा छा रहा है घट के अंदर
कोई सिरज रहा है मुझे फिर से
कोई सिरज रहा है मुझे फिर से
सचमुच मैं जाग रहा हूँ धीरे-धीरे नवजीवन के विहान में
वहाँ जिनसे मुझे प्रेम मिला था
वह मुझे अपने पास बाँधकर रखना चाहते थे
पर अब अनुभव हो रहा है मुझे -
जड़ता से बचने के लिए, निजता को बचाने के लिये
जड़ता से बचने के लिए, निजता को बचाने के लिये
उनकी दुनिया से अपनी दुनिया मेँ वापस लौटने का मेरा निर्णय सही था |
सटीक और सार्थक प्रस्तुति!
ReplyDelete"जड़ता से बचने के लिए, निजता को बचाने के लिये
ReplyDeleteउनकी दुनिया से अपनी दुनिया मेँ वापस लौटने का मेरा निर्णय सही था|"
बेहतरीन पंक्तियाँ...
प्रभावित करती अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजुदा होता आप से जब-
ReplyDeleteआप मन दीपक जलाता.
आप से ऊर्जा मिले तो
आप तम हर जगमगाता.
आप से जब आप मिलता
आप तब हो पूर्ण जाता.
बहुत उम्दा..
ReplyDeleteAAPKEE LEKHNI SE EK AUR BADHIYA KAVITA .
ReplyDeleteबहुत प्रभावी, उत्कृष्ट रचना.
ReplyDeleteबधाई.
-'सुधि'
very nice
ReplyDeletelast two lines r very impressive.
वहाँ जिनसे मुझे प्रेम मिला था
ReplyDeleteवह मुझे अपने पास बाँधकर रखना चाहते थे
पर अब अनुभव हो रहा है मुझे -
जड़ता से बचने के लिए, निजता को बचाने के लिये
उनकी दुनिया से अपनी दुनिया मेँ वापस लौटने का मेरा निर्णय सही था |
बहुत ही गहन और सटीक है ये बात ......अति सुन्दर ।