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Posted by : Sushil Kumar
Friday, September 7, 2012
जागो मोहन जागो
जागो रे मन जागो
जागो जीवन जागो
जागना है तुम्हें
जगाना है तुम्हें
जगजगाना है तुम्हें
तुम देह नहीं
माटी नहीं तुम
न कोई दु:ख हो
तुम्हारी स्वांस छू रहा कोई
तुममें कोई स्वर कोई अनहद बज रहा
तुम अद्भूत मात्र एक हो
तुम यात्रा हो
तुम पथिक हो
तुम खोजी हो
तुम चेतना
तुम दीपक
तुम्ही प्रेम
जाने के बाद भी तुम हो
अब भी तुम
तुम थे हो रहोगे
अपने अंतस का वातायन तो खोलो
कितना मनोरम दृश्य है वहाँ
शांति की अजस्र धार वहाँ
पूरा थिर है पर लय है
आवाज नहीं पर ताल है
सचमुच तुम बूँद हो
पर समुद्र की गहराई है तुममें
मै जितना तुम हूँ
उतना ही तुम मैं हो |
बहुत बढ़िया...
ReplyDeleteबहुत अच्छी भावाव्यक्ति , बधाई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeleteबधाई सुशील जी.
सादर
अनु
धन्यवाद|
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (06-10-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बहुत ही सुन्दर रचना..
ReplyDelete:-)
बेहद खूबसूरत!!!!!
ReplyDeleteअनु