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- मेरा खोया वसंत कोई वापस लौटा दे
Posted by : Sushil Kumar
Tuesday, March 13, 2012
(हिन्द-युग्म, नई दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य काव्य-संग्रह से - ) |
माघ-शुक्ला की पंचमी बीत गई
पर वसंत नहीं आया
वह पूछ रहा –
कहाँ आऊँ मैं कि
कैसे आऊँ
बहुत हैरान है वसंत
बहूत परेशान है वसंत
वह आना चाहता है
वासंती बयार बहाना चाहता है
पर उसे नहीं मिल रही ऋतु
नहीं मिल रहा माहौल
आम्रकुंज की तलाश है उसे
पर आम्रकुंज नहीं है जिनके खिलते बौरों पर
वह झूम-झूम, इठला-इठलाकर लहरा सके
कहाँ लापता हो गये वे सारी गुल्म-लताएँ-झाड़ियाँ
जिसकी नन्ही-कोमल-अलसाई सी कोपलों की आँखें
खोल देता था धीरे से वह
कहाँ लुप्त हो गया बंसवाड़ी और बगीचे का हरापन
जो पूरवैया के मादक झोंको से मिलकर
हृदय में मधुर संगीत-सा घोल देता था
बरसों बीत गये वैसी धुन सुने
वसंत ढूंढ रहा चटक भरी फूलों को
जिन्हें चुपके से छूता था वह
और खिलखिलाकर हँस पड़ते थे वे
उन तितलियों को भी
जो अपने ही पंखों के रंगों पर इतराती
एक फूल से दूसरे फूल तक डोलती फिरती थी
लगता था, पूछ रही हो वह कि
तुम्हारे शतदल अधिक सुंदर हैं या मेरे पंख
वसंत को तलाश है उन भौरों का
जो फूलों पर मँडराते हुए सोचते थे कि
उनके गुनगुनाने से ही
ये ज्यादा रंगीन होकर खिलते हैं
वसंत को खोज है
पलाश के उन वृक्षों की
जिनकी एक-एक डाली पुष्प-गुच्छों से लद जाती थी
तब उसका लाल शोख रंग वसंत को बहुत भाता था
वसंत की चाह बनी हुई है
दूर-दूर तक फैले हुए सरसों के उन खेतों की
जिसकी पीली-सी चादर
जब बिछ जाती थी धरती पर,
थका-माँदा वसंत सुसताना चाहता है
उसके पीले वसन पर
और उसमें एकाकार हो जाना चाहता है
वह चिंता-मगन है और विकल भी
प्रेमियों के दिलों में उतरने को
उनकी कानों में फुसफुसाना चाहता है कि
यह मस्ती का मौसम है
अरसे से हृदय के किसी कोने गुप्त पड़े
प्रेम को प्रकट करने का
झूमने-गाने का
पर कोई राह नहीं मिल रही उसे
वह पूछ रहा –
मैं कहाँ आऊँ
यहाँ तो सीमेंट के बड़े-बड़े भवन हैं
इनकी दीवारों के बीच मेरी बयार बह नहीं पाती
चहुंदिश ईंट, गारे और सीमेंट की ठोस अट्टालिकाएँ हैं
मेरी बयार उनके पार नहीं जा पाती
उन दीवारों के बीच घुटता हुआ दम तोड़ देता हूँ
उन कोपल पत्तों को कहाँ ढूंढूँ
जिसकी सरसराहटों में मैं गाता-फिरता था
दूर तक फैले खेत और अमराईयाँ कहाँ गये
भौरों का गुनगुन कहाँ गुम हो गया
करंज-कचनार-शाल-पलाश कहाँ चले गये
कहाँ पाऊँ इन उपादानों को
कंक्रीट के जंगल में?
वाह!
ReplyDeleteबहुत उम्दा।
बहुत दिनों बाद अच्छी कविता नज़र से गुज़री। आपके कवि से प्रभावित हूँ।
ReplyDelete*महेंद्रभटनागर
[आपकी सुन्दर रचना ने चंद पंक्तियाँ लिखवा लीं]
ReplyDeleteवसंत को तलाश लेंगे सब
पहुँचेंगे खेतों में
अमराइयों में
बचे हुए निसर्ग में
वसंत क्यों व्याकुल हो ?
यह चिर असन्तोषी मुद्रा
बहुत ही उम्दा प्रभावशाली एवं भावपूर्ण अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteBahut sundar
ReplyDeleteसुशील भाई, बहुत दिनों बाद आपकी नई पोस्ट मिली। अच्छा लगा, बधाई नई कविता पुस्तक की और इस कविता की। सुन्दर कविता है आपकी…
ReplyDeleteआपकी पोस्ट कल 15/3/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
http://charchamanch.blogspot.com
चर्चा मंच-819:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
बहुत बढिया!!
ReplyDeleteबहुत प्रभावशाली
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता.........
ReplyDeleteभौतिक संस्कृति और आधुनिक होते हम ने पूरे प्राकृतिक रंगों को नष्ट कर दिया है।
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति....
ReplyDeleteवह आना चाहता है
ReplyDeleteवासंती बयार बहाना चाहता है
पर उसे नहीं मिल रही ऋतु
नहीं मिल रहा माहौल
आम्रकुंज की तलाश है उसे
पर आम्रकुंज नहीं है जिनके खिलते बौरों पर
वह झूम-झूम, इठला-इठलाकर लहरा सके
manzarkalim1958@gmail.com
ReplyDeleteMar 16 (3 days ago)
to me
bhai susheel kumar
basant kayhwalaysay ap ki kavita pasandai.kavita lambi hai,lekin agar
lambi na hooti to basant kay itnaydukh par nigah nahi jati, mubarak
ho.
manzarkalim
nice poem..
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